पुणे करार: गांधी और आंबेडकर के बीच वैचारिक संघर्ष और दलित सशक्तिकरण की दिशा | Pune Pact Information

Jay Bhim Talk
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"पुणे करार: म. गांधी और डा. आंबेडकर के बीच वैचारिक संघर्ष और दलित सशक्तिकरण की दिशा"

पुणे करार (24 सितंबर 1932) से संबंधित डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और महात्मा गांधी के विचार एकदूसरे से काफी भिन्न थे। दोनों ही नेता दलितों के अधिकारों और सामाजिक समानता की वकालत करते थे, लेकिन उनके दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण अंतर था। आइए जानते हैं कि पुणे करार के संदर्भ में दोनों का क्या कहना था:

 1. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का दृष्टिकोण

डॉ. आंबेडकर दलितों के अधिकारों और सशक्तिकरण के कट्टर समर्थक थे। उनका मानना था कि दलितों को उनके अधिकार तब तक नहीं मिल सकते, जब तक उन्हें राजनीतिक रूप से स्वतंत्र और सशक्त नहीं किया जाता। आंबेडकर अलग निर्वाचक मंडल (separate electorates) का समर्थन करते थे, ताकि दलित समुदाय अपने प्रतिनिधियों का चुनाव सीधे तौर पर कर सके। उनका मानना था कि:

 अलग निर्वाचक मंडल का महत्व: आंबेडकर का मानना था कि अगर दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल नहीं होगा, तो ऊंची जातियों के प्रभावशाली लोग दलितों की राजनीतिक भागीदारी पर नियंत्रण रखेंगे। इससे दलितों को सशक्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा और उनके अधिकारों की रक्षा नहीं हो पाएगी।

 समानता की मांग: आंबेडकर ने तर्क दिया कि अलग निर्वाचक मंडल दलितों के लिए एक सुरक्षित राजनीतिक अधिकार सुनिश्चित करेगा, जिससे वे स्वतंत्र रूप से अपनी समस्याओं को उठा सकेंगे और उनके लिए उचित नीतियां बना सकेंगे।

 गांधी के विरोध पर आंबेडकर का जवाब: आंबेडकर ने गांधी के इस तर्क का विरोध किया कि अलग निर्वाचक मंडल से हिंदू समाज में विभाजन बढ़ेगा। आंबेडकर का मानना था कि दलितों को समान अधिकार और स्वतंत्रता दिए बिना समाज में एकता नहीं लाई जा सकती।

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डा. आंबेडकर का कथन:  

"यदि दलितों को राजनीतिक रूप से स्वतंत्रता नहीं दी गई, तो उनके साथ समाज में बराबरी का व्यवहार कभी नहीं किया जाएगा। अलग निर्वाचक मंडल दलितों के वास्तविक सशक्तिकरण का एकमात्र उपाय है।"

 2. महात्मा गांधी का दृष्टिकोण

महात्मा गांधी ने दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल का कड़ा विरोध किया। उनका मानना था कि यह व्यवस्था हिंदू समाज में विभाजन को और गहरा कर देगी और दलितों को मुख्यधारा से और दूर कर देगी। गांधी का दृष्टिकोण था कि:

 जातिगत एकता का समर्थन: गांधी ने हमेशा सामाजिक एकता की वकालत की और उनका मानना था कि दलित और ऊंची जातियों के बीच भेदभाव को खत्म करके ही समाज में वास्तविक समानता लाई जा सकती है। उनका मानना था कि अलग निर्वाचक मंडल दलितों और अन्य हिंदुओं के बीच दूरियां बढ़ाएगा और समाज में विभाजन पैदा करेगा।

 अनशन का निर्णय: महात्मा गांधी ने अलग निर्वाचक मंडल के विरोध में 20 सितंबर 1932 को यरवदा जेल में अनशन शुरू किया। उन्होंने कहा कि यह अनशन दलितों और हिंदू समाज को विभाजित करने के खिलाफ है, और वह तब तक भोजन नहीं करेंगे, जब तक यह प्रस्ताव वापस नहीं लिया जाता।

 दलितों के साथ समान व्यवहार: गांधी का मानना था कि दलितों को शिक्षा और सामाजिक समानता के माध्यम से मुख्यधारा में लाना चाहिए, न कि उन्हें अलग करके। उन्होंने दलितों को "हरिजन" कहा, जिसका अर्थ है "भगवान के लोग", और उनके उत्थान के लिए कई सामाजिक सुधार अभियानों का नेतृत्व किया।

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म. गांधी का कथन:  

"अलग निर्वाचक मंडल से दलितों को और भी अलगथलग कर दिया जाएगा। हमें दलितों को हिंदू समाज में बराबरी का दर्जा देकर उनके साथ भेदभाव खत्म करना चाहिए, न कि उन्हें और अलग करना चाहिए।"

 3. पुणे करार के बाद दोनों के विचार

महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर के बीच विचारधारा की यह टकराहट आखिरकार पुणे करार की ओर ले गई। गांधी के अनशन और आंबेडकर के साथ हुई चर्चाओं के बाद, दोनों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। 

 डॉ. आंबेडकर का समझौता: आंबेडकर ने दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की अपनी मांग को वापस लिया, लेकिन बदले में दलितों के लिए अधिक सीटों पर आरक्षण की मांग की। उन्होंने यह स्वीकार किया कि संयुक्त निर्वाचक मंडल के तहत दलितों का प्रतिनिधित्व तभी उचित हो सकता है, जब आरक्षित सीटें और प्राथमिक चुनाव की व्यवस्था हो।

 महात्मा गांधी की जीत: गांधी ने अलग निर्वाचक मंडल की व्यवस्था को रोकने में सफलता पाई, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि दलितों को राजनीतिक और सामाजिक सशक्तिकरण की आवश्यकता है। पुणे करार के तहत, उन्होंने दलितों के लिए आरक्षित सीटों को स्वीकार किया।

 पुणे करार के बाद के घटनाक्रम

पुणे करार के बाद, भारतीय राजनीतिक ढांचे में दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई, जो आगे चलकर भारतीय संविधान में स्थायी रूप से लागू हो गई। इसके बाद दोनों नेताओं के बीच भले ही वैचारिक मतभेद बने रहे, लेकिन दोनों ने दलितों के उत्थान के लिए अलगअलग तरीके से योगदान दिया।

महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर के विचारों में काफी अंतर था, लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही था—दलितों के अधिकारों और सम्मान की रक्षा। गांधी ने समाज में एकता की बात की, जबकि आंबेडकर ने राजनीतिक अधिकारों को दलितों की सशक्तिकरण का मुख्य साधन माना। पुणे करार एक ऐसा समझौता था, जिसने दोनों नेताओं के बीच वैचारिक मतभेदों को पाटने का काम किया और भारतीय समाज में दलितों की स्थिति को सुधारने के लिए एक नया रास्ता खोला।

 Source:

- Wikipedia / Jagran Josh

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